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Channel: युग निर्माण© (अखिल भारतीय गायत्री परिवार)
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*9 दिवसीय मौन संजीवनी साधना सत्र*

श्रद्धा से भरे लाखों-करोड़ों गायत्री परिजनों के श्रद्धा के केंद्र शांतिकुंज का यह स्वर्ण जयंती वर्ष मनाया जा रहा है। 50 वर्ष में प्रौढ़ता-परिपक्वता के लक्षण विकसित हो जाते हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने गायत्री परिवार देव संगठन तथा शांतिकुंज की नींव साधना आधारित रखी है। साधना ही इस संगठन के सशक्तता का कारण है।

हमारे देव परिवार के अनेक परिजन शांतिकुंज में नौ दिवसीय साधना सत्र अनेक बार संपन्न कर लाभ ले चुके हैं। वे परिजन जो आत्मोत्कर्ष की दिशा में कुछ अधिक तप-तितीक्षा कर देवत्व जागरण की दिशा में अग्रसर होना चाहें, उनके लिए उच्चस्तरीय साधनाओं जैसे नौ दिवसीय मौन संजीवनी साधना सत्र 1 जून 2022 नियमित रूप से आरंभ किया जा रहा है। यह साधना विधान अधिक तप-तितीक्षा प्रधान होगा, अतः इस दिशा में प्रगतिरत रहने वाले जिज्ञासु-उत्सुक साधक आवेदन कर सकते हैं।

कृपया फोन पर साक्षात्कार के बाद अनुमति सुनिश्चित हो जाने के पश्चात् ही आने की व्यवस्था बनाएँ। कच्ची मनोभूमि के व्यक्ति आवेदन नहीं करें।

आवेदन लिंक https://awgp.org/shivir

"सधन्यवाद"
शिविर विभाग, शांतिकुंज

+91 92583 69749
👉 *विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग ५)*
*चिन्तन क्रम व्यवस्थित हो*

*‘जो होगा सो देखा जायेगा’, किसान यह नीति अपनाकर फसलों की देखरेख करना छोड़ दे, निराई-गुड़ाई करने की व्यवस्था न बनाये, खाद-पानी देना बन्द कर दे तो फसल के चौपट होते देर न लगेगी।* व्यवसाय में व्यापारी बाजार भाव के उतार-चढ़ाव के प्रति सतर्क न रहे तो उसकी पूंजी के डूबते देरी न लगेगी। सीमा प्रहरी रातों-दिन पूरी मुस्तैदी के साथ सीमा पर डटे चहल-कदमी करते रहते हैं। सुरक्षा की चिन्ता वे न करें तो दुश्मन-घुसपैठियों से देश को खतरा उत्पन्न हो सकता है। *मनीषी, विचारक, समाज सुधारक, देशभक्त, महापुरुष का अधिकांश समय विधेयात्मक चिंतन में व्यतीत होता है।* उन्हें देश, समाज, संस्कृति ही नहीं समस्त मानव जाति के उत्थान की चिन्ता होती है। सार्वजनीन तथा सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वे योजना बनाते और चलाते हैं। *यह विधेयात्मक चिन्ता ही है, जिसकी परिणति रचनात्मक उपलब्धियों के रूप में होती है।*

*मानव जीवन वस्तुतः अनगढ़ है। पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कार उसे पतन की ओर ढकेलने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते हैं।* उनकी अभिप्रेरणा से प्रभावित होकर इन्द्रियों को मनमानी बरतने की खुली छूट दे दी जाय तो सचमुच ही मनुष्य पशुओं की श्रेणी में जा बैठेंगे, पर यह आत्म गरिमा को सुरक्षित रखने की चिन्ता ही है जो मनुष्य को पतन के प्रवाह में बहने से रोकती है। *मानवी काया में नरपशु भी होते हैं जिनका कुछ भी आदर्श नहीं होता, परन्तु जिनमें भी महानता के बीज होते हैं, वे उस प्रवाह में बहने से इन्कार कर देते हैं।* सुरक्षा प्रहरी की तरह वह स्वयं की प्रवृत्तियों के प्रति विशेष जागरूक होते हैं। *हर विचार का, मन में आये संवेगों का वे बारीकी से परीक्षण करते हैं तथा सदैव उपयोगी चिन्तन में अपने को नियोजित करते हैं।*

*( तोड़ो नहीं जोड़ो, बुद्ध की प्रेरणादायक कहानी | Todo Nahi Jodo, Motivational Story | Rishi Chintan, https://youtu.be/Nrh8WA6_jec )*
*( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj Official WhatsApp 8439014110 )*

चिन्ता करना मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। एक सीमा तक वह मानवी विकास में सहायक भी है। *पशुओं का जीवन तो प्रवृत्ति तथा प्रकृति प्रेरणा से संचालित होता है। शिश्नोदर जीवन वे जीते तथा उसी में आनन्द अनुभव करते हैं किन्तु मनुष्य की स्थिति भिन्न है।* मात्र इन्द्रियों की परितृप्ति से उसे सन्तोष नहीं हो सकता, होना भी नहीं चाहिए क्योंकि उसके ध्येय उच्च हैं। उनकी प्राप्ति के लिए उसे स्वेच्छापूर्वक संघर्ष का मार्ग वरण करना पड़ता है। *यह मनुष्य के लिए गौरवमय बात भी है कि वह अपनी यथास्थिति पर सन्तुष्ट न रहे।*

.... *क्रमशः जारी*
📖 *विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ७*
✍🏻 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
Ep 40:-
ब्रह्मा अनुष्ठान रूप में गुरु गीता

गुरूगीता शिष्य की हृदयवीणा से निकले भक्ति के स्वरों की गूँज है। यह ऐसी झंकार है, जो शिष्य के भाव विह्वल हृदय से उठकर सीधे अपने सारे सद्गुरू के प्रेम विह्वल को झंकृत कर देती है। शिष्य के हृदय के इस मौन कंपन को भला उसके गुरूदेव के अलावा और सुनेगा भी तो कौन? यह एक ऐसा सच है, जिसे शिष्य हुए बिना गाया नहीं जा सकता। जिनके जीवन में सारे रिश्ते उसके गुरूदेव में ही समा चुके हों, वह भला किसी और की याद कैसे करें और क्यों करें? वह तो अपने जीवन की हर साँस में अपने गुरू का नाम लेता है। वह तारे, चाहे मारे, शिष्य की गति और कहीं नहीं हां सकती।

Ep 40:-
ब्रह्मा अनुष्ठान रूप में गुरु गीता
Bharma Anushthan Roop Mein Guru Gita
गुरु गीता, श्रद्धेय डॉ प्रणव पण्ड्या जी
Rishi Chintan Youtube Channel
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https://youtu.be/eFivIEqbYsY

( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj Official WhatsApp 8439014110 )
👉 भक्तिगाथा (भाग १३४)
अनन्य भक्ति ही श्रेष्ठतम है

‘‘श्रीराधा की बात मृणालिनी को अच्छी तो बहुत लगी, पर किंचित आश्चर्य भी हुआ। उसे एक ही समय में दो अनुभवों ने घेर लिया। पहला अनुभव इस खुशी का था कि स्वयं श्रीराधा उसे श्रीकृष्ण के प्रेम का रहस्य समझा रही हैं। इससे अधिक सौभाग्य उसका और क्या हो सकता है? क्योंकि यह सच तो ब्रज धरा के नर-नारी, बालक-वृद्ध सभी जानते थे कि श्रीकृष्ण के हृदय का सम्पूर्ण रहस्य वृषभानु की लाडली के अलावा कोई नहीं जानता। यह बात ब्रज के मानवों को ही नहीं, वहाँ के पशु-पक्षियों, वृक्ष-वनस्पतियों को भी मालूम थी कि बरसाने की राधा नन्दगाँव के कृष्ण के रहस्य के सर्वस्व को जानती हैं। और वही राधा इस रहस्य को मृणालिनी को कहें, समझाएँ, बताएँ इससे अधिक सुखकर-सौभाग्यप्रद भला और क्या होगा?

लेकिन मृणालिनी के अनुभव का एक दूसरा हिस्सा भी था। इसी हिस्से ने उन्हें अचरज में डाल रखा था। यह आश्चर्य की गुत्थी ऐसी थी, जिसे वह चाहकर भी नहीं सुलझा पा रही थी। यह आश्चर्य भी श्रीराधा से ही जुड़ा था। उसे लग रहा था कि जब श्रीराधा स्वयं कृष्ण से प्रेम करती हैं, तब वह अपने इस प्रेम का दान उसे क्यों करना चाहती हैं। ऐसे में तो उन्हें स्वयं वञ्चित रहना पड़ेगा। कृष्णप्रेम का अधिकार उसे सौंप कर स्वयं ही राधा रिक्त हस्त-खाली हाथ क्यों होना चाहती हैं। मृणालिनी के लिए यह ऐसी एक अबूझ पहेली थी जिसे वह किसी भी तरह से सुलझा नहीं पा रही थी। बस वह ऊहापोह से भरी और घिरी थी। संकोचवश यह पूछ भी नहीं पा रही थी और बिना पूछे उससे रहा भी नहीं जा रहा था।

हाँ! उसके सौम्य-सलोने मुख पर भावों का उतार-चढ़ाव जरूर था, जिसे श्रीराधा ने पढ़ लिया और वह हँस कर बोलीं- अब कह भी दे मृणालिनी, नहीं कहेगी तो तेरी हालत और भी खराब हो जाएगी। श्रीराधा की इस बात से उसका असमञ्जस तो बढ़ा पर संकोच थोड़ा घटा। वह जैसे-तैसे हिचकिचाते हुए लड़खड़ाते शब्दों में बोली- क्या कान्हा से आप रूठ गयी हैं? उसके इस भोले से सवाल पर श्रीराधा ने कहा- नहीं तो। मृणालिनी बोली- तब ऐसे में उन्हें मुझे क्यों देना चाहती हैं? उसकी यह भोली सी बात सुनकर श्रीराधा जी हँस पड़ीं।’’ श्रीराधा की इस हँसी का अहसास ऋषिश्रेष्ठ पुलह के मुख पर भी आ गया। वे ही इस समय भाव भरे मन से उस गोपकन्या मृणालिनी की कथा सुना रहे थे।

लेकिन यह कथा सुनाते-सुनाते उन्हें लगा कि समय कुछ ज्यादा ही हो चला है। अब जैसे भी हो देवर्षि नारद के अगले भक्तिसूत्र को प्रकट होना चाहिए। यही सोचकर उन्होंने मधुर स्वर में कहा- ‘‘मेरी इस कथा का तो अभी कुछ अंश बाकी है। ऐसे में मेरा अनुरोध है कि देवर्षि अपने सूत्र को बता दें। इसके बाद कथा का शेष अंश भी पूरा हो जाएगा।’’ उनकी यह बात सुनकर नारद अपनी वीणा की मधुर झंकृति के स्वरों में हँस दिए और बोले- ‘‘आप का आदेश सर्वदा शिरोधार्य है महर्षि! बस मेरा यह अनुरोध अवश्य स्वीकारें और अपनी पावनकथा का शेष अंश अवश्य पूरा करें।’’ देवर्षि नारद के इस कथन पर ऋषिश्रेष्ठ पुलह ने हँस कर हामी भरी। उनके इस तरह हामी भरते ही देवर्षि ने कहा-
‘भक्ता एकान्तिनोमुख्याः’॥ ६७॥

( घने अँधेरे में हम घिरे हैं | Ghane Andhere Me Hum Ghiren Hain | Shraddheya Shailbala Pandya, https://youtu.be/6l-AQ8ad-lk )
( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj Official WhatsApp 8439014110 )

एकान्त (अनन्य) भक्त ही श्रेष्ठ है।
अपने इस सूत्र को पूरा करके देवर्षि ने कहा- ‘‘हे महर्षि! अब मेरा आपसे भावभरा अनुरोध यही है कि इस सूत्र का विवेचन, इसकी व्याख्या आप अपने द्वारा कही जा रही कथा के सन्दर्भ में करें।’’ नारद का यह कथन सुनकर ऋषिश्रेष्ठ पुलह के होठों पर मुस्कान आ गयी। उन्होंने वहाँ पर उपस्थित जनों की ओर देखा। सभी उनकी इस दृष्टि का अभिप्राय समझ गए और सबने विनीत हो निवेदन किया- ‘‘हे महर्षि! आप कथा के शेष भाग को पूरा करते हुए इस सूत्र का सत्य स्पष्ट करें।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य
👉 *विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग १५)*
*प्रतिकूलताओं से जूझें, सन्तुलन बनाये रखें*

*मध्यवर्ती सन्तुलन स्वाभाविक स्थिति है। तापमान बढ़ जाने से ज्वर माना जाता है। शरीर ठण्डा रहे तो वह भी शीत प्रकोप माना और चिन्ताजनक समझा जाता है।* रक्तचाप बढ़ने की ही तरह उसका घटना भी रुग्णता का चिन्ह है। किसी अनुकूलता से लाभान्वित होने पर हर्षातिरेक में उछलने लगना भी असंगत है और असफलता की प्रतिकूलता का सामना करने पर विषाद में डूब जाना और *सिर धुनना भी अविकसित अनगढ़ व्यक्तित्व का चिन्ह है। इस असंतुलनों से बचा ही जाना चाहिए।*

*सभी व्यक्ति इच्छानुकूल आचरण करेंगे—यह आशा रखना व्यर्थ है। सभी अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखते हैं।* जन्म-जन्मान्तरों के संचित भले-बुरे संस्कार साथ लेकर आते हैं। पलने और विकसित होने की परिस्थितियों में भिन्नता रहती है। किसी पेड़ के पत्तों का गठन आपस में मिलता-जुलता है, उप उनमें भिन्नता अवश्य रहती है। *हर आदमी के अंगूठे के निशानों में अन्तर होता है। एक आकृति-प्रकृति के दो मनुष्य कहीं नहीं देखे गये।* भिन्नता ही इस संसार की विशेषता है। उसके आधार पर बहुत तरह से सोचने और स्थिति के अनुरूप बदलने, व्यवहार करने की कुशलता आती है। *मनुष्य बहुज्ञ, बहुश्रुत, बहुकौशल सम्पन्न इसी आधार पर बनता है। उतार-चढ़ावों का सामना करते रहने से ही व्यावहारिकता में निखार आता है।*

*हल्के बर्तन चूल्हे पर चढ़ते ही आग-बबूला हो जाते हैं और उसमें डाले गये पदार्थ उफनने लगते हैं, पर भारी-भरकम बर्तनों में जो पकता है उसकी गति तो धीमी होती है, पर परिपाक उन्हीं में ठीक से बन पड़ता है।* हमें बबूले की तरह फूलना, फुदकना और इतराना नहीं चाहिए रीति-नीति स्थिर नहीं रहती, वह कुछ क्षण में टूट-फूट जाती है। प्रवाह झरने जैसा होना चाहिए जो नियत क्रम से नियत दिशा में प्रवाहमान रहे। *तभी वह अपने स्वरूप को सही बनाये रह सकता है, सही रीति-नीति से सही काम कर सकता है।
चंचलता व्यग्रता की मनःस्थिति में सही निर्धारण और सही प्रयास करते-धरते नहीं बन पड़ता।* असंतुष्ट और उद्विग्न व्यक्ति जो सोचता है एक पक्षीय होता है और जो करता है, उसमें हड़बड़ी का समावेश रहता है। *ऐसी मनःस्थिति में किये गये निर्धारण या प्रयास प्रायः असफल ही होते हैं, उन्हें यशस्वी बनने का अवसर नहीं मिलता।*

*आवेश या अवसाद दोनों ही व्यक्ति को लड़खड़ाती स्थिति में धकेल देते हैं। ऐसी दशा में निर्धारित कार्यों को पूरा कर सकना, साथियों के साथ उपयुक्त तालमेल बिठाये रह सकना कठिन जान पड़ता है।* प्रतिकूलतायें बाह्य परिस्थितियों के कारण जितनी आती हैं उससे कहीं अधिक निज का असन्तुलन काम को बिगाड़ता है। *व्यक्ति को उपहासास्पद, अस्थिर, अप्रामाणिक बनाता है।*

*( जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि | Jaisi Drusti Vaisi Srushti | Motivational Story | Rishi Chintan, https://youtu.be/eESOxu9H1Ps )
*( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj Official WhatsApp 8439014110 )*

*सबसे बड़ी बात यह है कि उत्तेजना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है।* आक्रोश में भरे हुए उद्विग्न व्यक्ति न चैन से रहते है, न दूसरों को रहने देते हैं। रक्त उबलता रहता है, विचार क्षेत्र में तूफान उठता रहता है। फलतः जो व्यवस्थित था वह भी यथास्थान नहीं रह पाता। *पाचन तन्त्र बिगड़ता है, रक्त प्रवाह में व्यतिरेक उत्पन्न होता है, असंतुलित मस्तिष्क अनिद्रा, अर्द्धविक्षिप्तता जैसे रोगों से घिरकर स्वास्थ्य सन्तुलन को गड़बड़ाता है।* हमें हंसती-हंसाती स्थिति में ही रहना चाहिए एवं हर परिस्थिति के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिए।

.... *क्रमशः जारी*
✍🏻 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
📖 *विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ १८
👉 *भक्तिगाथा (भाग १४४)*
*तुम भक्तन के भक्त तुम्हारे*

*‘‘अवश्य ही’’ समवेत ध्वनि के साथ सबने सहमति जतायी। तब देवर्षि ने कहना शुरू किया- ‘‘एक बार भगवान महादेव के दर्शनों के लिए मैं कैलाश गया था।* देवाधिदेव वर्षों उपरान्त अपनी समाधि से जगे थे। इसलिए कैलाश में बड़ा उत्साह था। *नंदी, भृंगी आदि सभी शिवगण अतिउत्साहित थे। देवगण, सिद्ध, महर्षिगण महादेव के दर्शनों के लिए कैलाश पहुँच रहे थे परन्तु अभी तक किसी को भगवान शिव के दर्शन नहीं हुए थे।* पूछने पर नन्दी ने बताया कि भगवान महादेव अभी माता पार्वती के साथ एकान्त वार्ता कर रहे हैं।

नन्दी के द्वारा रोके जाने पर भी मैं शिवदर्शन का उत्साह संवरण न कर सका। *इसलिए वहीं पर एक कोने में बैठकर भगवान महादेव और माता पार्वती से प्रार्थना करने लगा कि वह मुझे बुला लें और अपने दर्शनों से अनुग्रहीत करें।* इसे मेरी पुकार की त्वरा कहें या भगवान उमामहेश्वर का अनुग्रह, उन्होंने सचमुच ही बुला लिया। यह सन्देश लेकर नन्दी स्वयं मेरे पास आए और बोले- प्रभु ने आपको बुलाया है देवर्षि। *इस बुलावे पर जब मैं भगवान सदाशिव के समीप पहुँचा तब वह वहाँ पर इन ऋषि अम्भृण की ही चर्चा कर रहे थे।’’*

देवर्षि की इस बात ने सभी को चकित किया परन्तु इससे सर्वथा अप्रभावित देवर्षि अपनी बात कह रहे थे। *उन्होंने बताया कि ‘‘जिस समय वह भगवान भोलेनाथ के समीप पहुँचे उस समय वह माता पार्वती से कह रहे थे कि इस समय धरा पर अम्भृण के तप व ज्ञान का शुभ्र प्रकाश फैला हुआ है।* ऐसे महान तपस्वी व उच्चकोटि के ज्ञानी यदा-कदा ही धरती पर वास करते हैं। *स्वयं ही तप व ज्ञान के अधिष्ठान हैं जो, वे इन एकान्त क्षणों में किसी के तप व ज्ञान की प्रशंसा कर रहे हैं, यह बात कुछ विचित्र लगी क्योंकि इस सत्य से भला कौन अपरिचित है कि महादेव सृष्टि के समस्त तपस्वियों व ज्ञानियों के परमाराध्य हैं।* महादेव के इस कथन ने मुझे इतना चकित नहीं किया, जितना कि भगवती जगदम्बा की वाणी ने मुझे चौंकाया।’’

*देवर्षि की इस बात ने सभी की जिज्ञासा को चरम पर पहुँच दिया। अनेकों स्वर एक साथ उभरे- ‘‘हे देवर्षि! आप हम सबको अविलम्ब उस बात से परिचय कराएँ।’’* इस पर देवर्षि ने कहा- ‘‘भगवती उस समय कह रही थीं कि अम्भृण आप के लिए तपस्वी व ज्ञानी हो सकता है, परन्तु मेरे लिए वह मेरी सबसे प्रिय सन्तान है। *वह मुझे कार्तिकेय व गणेश से भी ज्यादा प्रिय है। इस कथन के साथ ही उन दोनों की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे दोनों एक साथ बोले- तुम बताओ देवर्षि, अम्भृण के बारे में मेरा कथन सही तो है।* उनके इस कथन पर मैंने कहा- आप दोनों के हृदय में जिसने स्थान पाया है, उससे अधिक परम सौभाग्यशाली भला और कौन है?’’

*( प्रज्ञा गीत परम वन्दनीय माता जी भगवती देवी भाग 1 | Vandaniya Mataji Bhagwati Devi | Gayatri Pariwar, https://youtu.be/M_ljApjNp2E )*
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*देवर्षि जब अपनी यह बात पूरी कर रहे थे, तभी महर्षि अम्भृण ने आँखें खोली और बड़े सौम्य स्वर में बोले- ‘‘सब उनके हैं। उन्हें सभी समान प्रिय हैं।’’ इतना कहकर उन्होंने देवर्षि की ओर देखते हुए कहा- ‘‘देवर्षि! आप भक्तितत्त्व के मर्मज्ञ हैं।* आपसे अधिक और भला इस सत्य को कौन जानता होगा कि भक्त विशेष नहीं होता, विशेष तो भगवान होते हैं। *सच्चा भक्त तो वही है, जो अपने अस्तित्त्व को भगवान् और उनके भक्तों की सेवा में विलीन व विसर्जित कर दे।’’ ऋषि अम्भृण के इस कथन से स्वतः ही सूत्र की सम्पूर्ण व्याख्या हो गयी।* सभी ऐसा अनुभव कर रहे थे।

.... *क्रमशः जारी*
✍🏻 *डॉ. प्रणव पण्ड्या*
📖 *भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २८५*
👉 *आदतों के गुलाम न बनें (भाग 1)*

*जिन कार्यों या बातों को मनुष्य दुहराता रहता है, वे स्वभाव में सम्मिलित हो जाती हैं और आदतों के रूप में प्रकट होती हैं।* कई मनुष्य आलसी प्रवृत्ति के होते हैं। यों जन्मजात दुर्गुण किसी में नहीं हैं। अपनी गतिविधियों में इस प्रवृत्ति को सम्मिलित कर लेने और उसे समय कुसमय बार बार दुहराते रहने से वैसा अभ्यास बन जाता है। यह समग्र क्रिया−कलाप ही अभ्यास बन कर इस प्रकार आदत बन जाते हैं मानो वह जन्मजात ही हो। *या किसी देव दानव ने उस पर थोप दिया हो। पर वस्तुतः यह अपना ही कर्तृत्व होता है जो कुछ ही दिन में बार-बार प्रयोग से ऐसा मजबूत हो जाता है मानो वह अपने ही व्यक्तित्व का अंग हो और वह किसी अन्य द्वारा ऊपर से लाद दिया गया हो।*

जिस प्रकार बुरी आदतें अभ्यास में आते रहने के कारण स्वभाव बन जाती है और फिर छुड़ायें नहीं छूटती, वैसी ही बात अच्छी आदतों के सम्बन्ध में है।

*अच्छी आदतों के संबंध में भी यही बात है। हँसते मुस्कराते रहने की आदत ऐसी ही है।* उसके लिए कोई महत्वपूर्ण कारण होना आवश्यक नहीं। आमतौर से सफलता या प्रसन्नता के कोई कारण उपलब्ध होने पर ही चेहरे पर मुसकान उभरती है। किन्तु कुछ दिनों बिना किसी विशेष कारण के भी मुसकराते रहने की स्वाभाविक पुनरावृत्ति करते रहने पर वैसी आदत बन जाती हैं फिर *उनके लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं पड़ती है और लगता है कि व्यक्ति कोई विशेष सफलता प्राप्त कर चुका है। साधारण मुसकान से भी सफलता मिलकर रहती है।*

*( तोड़ो नहीं जोड़ो, बुद्ध की प्रेरणादायक कहानी | Todo Nahi Jodo, Motivational Story | Rishi Chintan, https://youtu.be/Nrh8WA6_jec )
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*क्रोधी स्वभाव के बारे में भी यही बात है। कोई व्यक्ति अनायास ही चिड़चिड़ाते रहते देखे गये हैं।* अपमान, विद्वेष या आशंका जैसे कारण रहने पर तो खीजते रहने की बात समय में आती है, पर तब आश्चर्य होता है कि कोई प्रतिकूल परिस्थिति न होने पर भी लोग खीचते झल्लाते चिड़चिड़ाते देखे जाते हैं। *यह और कुछ नहीं उसके कुछ दिन के अभ्यास का प्रतिफल है।*

*शेष कल*
✍🏻 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
📖 *अखण्ड ज्योति 1990 नवम्बर पृष्ठ 38*
👉 इन तीनों को झिड़को

निर्दयता, घमण्ड और कृतघ्नता

(1) ये मन के मैल हैं। इनसे बुद्धि प्राप्त करने में फंस जाती है। निर्दयी व्यक्ति अविवेकी और अदूरदर्शी होता है। वह दया और सहानुभूति का मर्म नहीं समझता।

(2) घमण्डी हमेशा एक विशेष प्रकार के नशे में मस्त रहता है, धन, बल, बुद्धि में अपने समान किसी को नहीं समझता।

(3) कृतघ्न पुरुष दूसरों के उपकार को शीघ्र ही भूल कर अपने स्वार्थ के वशीभूत रहता है। वह केवल अपना ही लाभ देखता है। वस्तुतः उस अविवेकी का हृदय सदैव मलीन और स्वार्थ-पंक में कलुषित रहता है। दूसरे के किए हुए उपकार को मानने तथा उसके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करने में हमारे आत्मिक गुण-विनम्रता, सहिष्णुता और उदारता प्रकट होते हैं।

( अमृतवाणी:- साधना से सिद्धि | Sadhna Se Siddhi | Pt Shriram Sharma Acharya, Rishi Chintan, https://youtu.be/l-h0rWft5WY )
( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj WhatsApp 8439014110 )

अखण्ड ज्योति फरवरी 1950 पृष्ठ 13
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!! शांतिकुंज दर्शन !!
!! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार 14 Aug 2022 !!
👉 *बुरे विचारों से दूर रहिए। (अंतिम भाग)*

*संसार के अत्याधिक मनुष्यों को यह समझाना ही कठिन है कि उनके विचार ही उनके सुख-दुख के कारण हैं।* मनुष्यमात्र में अपने आप पर विवेचना करने की शक्ति का अभाव होता है। हम सभी बहिर्मुखी हैं। हम अपने कष्टों का कारण दूसरों को मानने में सन्तोष पाते हैं। *अपने दोषों को दूसरे में देखते हैं। जिस अवाँछनीय घटना की जड़ हमारे विचारों में ही है उसे हम दूसरे व्यक्तियों में देखते हैं।* इस प्रकार की मानसिक प्रवृत्ति को दोषारोपण की प्रवृत्ति कहते हैं अथवा प्रोजेक्शन कहते है।

वही मनुष्य बुरे विचारों के निरोध में समर्थ होता है, *जो अपने आपके विषय में सदा चिन्तन करता है और जो परोक्ष रूप से भी यह जानता है कि मनुष्य का मन ही दुख और दुखों का कारण है।* ऐसे ही मनुष्य में भले ओर बुरे विचारों के पहचानने की शक्ति उत्पन्न होती है।

*किसी भी ऐसे विचार को बुरा विचार कहना चाहिये जो आत्मा को दुःख देता हो, उसको भ्रम में डालता हो।* बीमारी के विचारों और असफलता के विचारों को सभी बुरा कहेंगे यह प्रत्यक्ष ही है कि इन विचारों से मन को दुख होता है और अनहोनी घटना होके रहती है। *किन्तु इस बात को मानने के लिये कम लोग तैयार होंगे कि शत्रुता के विचार, दूसरों को क्षति पहुंचाने के विचार भी बुरे विचार है।* ये विचार भी उसी प्रकार हमारी आत्मा का बल कम कर देते हैं जिस प्रकार कि असफलता और बीमारी के विचार आत्मा का बल कम कर देते हैं।

*( Ahankaar Hamara Shatru | अहंकार हमारा शत्रु | Dr Chinmay Pandya, https://youtu.be/RZ521CiWKHU )*
*( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj WhatsApp 8439014110 )*

*क्रमशः जारी*
*अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 14*
👉 *सच्चा आनन्द प्राप्त करने का मार्ग*

*कर्म करना—कर्तव्य धर्म का पालन मनुष्य का धर्म है। इसको छोड़ने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है।* पर काम करते समय आत्म-भाव को न भुलाना चाहिए और इसके लिए प्रतिदिन नियमपूर्वक ध्यान करना भी जरूरी है। *इस प्रकार के ध्यान से आत्मिक विचारधारा दूसरे कार्य करते समय भी बहती रहेगी।*

*इससे दुनिया को मनुष्यों एवं घटनाओं को तुम दूसरी ही दृष्टि से देखने लगोगे।* इससे स्वार्थ भी छूट जायगा और दुनिया के बन्धन भी कष्ट नहीं देंगे। सच्चा आनन्द प्राप्त करने का यही मार्ग है। संसार में कोई जाने या अनजाने आनन्द प्राप्त करने की ही चेष्टा कर रहे हैं। *कोई शराब पीकर उस आनन्द का भागी बनना चाहता है और कोई उत्तम मार्ग का अवलम्बन करके उसे प्राप्त करता है। आनन्द ही मनुष्यों का सच्चा और सहज स्वभाव है।*

*( अकेले चलना पड़ेगा | Akele Chalna Padega| Pt Shriram Sharma Acharya, https://youtu.be/jipWDzQmpLo )*
*( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj WhatsApp 8439014110 )*

*सभी लोग ऐसा निर्मल सुख चाहते हैं जिसमें किसी दुःख का पुट न हो।* सभी ऐसे ही आनन्द की खोज में हैं। पर यह केवल उन्हीं को मिल सकता है जो कर्म और ज्ञान का—लौकिकता और आध्यात्म का उचित सामञ्जस्य करने में सक्षम होते हैं।

*महर्षि रमण*
*अखण्ड ज्योति अप्रैल 1963 पृष्ठ 1*
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2024/04/28 21:20:15
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