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"चाय वाली"

मेरे गाँव में सड़क के किनारे एक छोटी-सी चाय की दुकान थी । उस दुकान को एक महिला चलाती थी । वह इस गाँव की नहीं थी इसलिए उसका इस गाँव में उस छोटी-सी झोपड़ी के अलावा और कोई ठिकाना न था । वह अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण इसी छोटी-सी दुकान से करती थी । गाँव के सभी बच्चे, बूढ़े और जवान उसकी दुकान के ग्राहक थे । गाँव में कोई और चाय की दुकान भी तो नहीं थी ।

मैं जब अपने बचपन के दिनों को याद करती हूँ तो उन यादों में उसकी चाय की सोंधी खुशबू भी शामिल होती है जो उस चायवाली के कोयले के चूल्हे पर उबलती रहती थी । जब मैं अपने दादाजी के साथ उसकी दुकान पर जाती तो काँच के जार में रखे पंजों के आकार के बड़े-बड़े बिस्किट मुझे आकर्षित करते थे । दादाजी तो चाय पीने बैठ जाते और मैं अपने सभी भाई-बहनों के लिए गिनकर बिस्किट लेती और भाग आती ।

हालाँकि गाँव के अधिकतर लोग चाय नहीं पीते थे लेकिन मेरे दादाजी उसके नियमित ग्राहक थे । एक दिन मैंने दादाजी से पूछ ही लिया- "दादाजी ! अपने घर में तो रोज़ चाय बनती है, तो फिर आप चाय वाली की दुकान पर चाय पीने क्यों जाते हैं ?"
पहले तो दादाजी ने मुझे बहलाते हुए कह दिया- " तुम्हारे लिए बिस्किट जो लाना होता है ।"
लेकिन उनके इस जवाब से मैं कहाँ संतुष्ट होनेवाली थी। फिर उन्होंने मुझे समझाया कि उसकी दुकान पर चाय पीने के कई उद्देश्य हैं ।

दादाजी ने कहा- " सुबह जब मैं टहलने के बाद चाय पीने जाता हूँ तो मेरे साथ और भी कई लोग होते हैं और सभी साथ में चाय भी पीते हैं । इससे मेरा सबसे मिलना-जुलना भी हो जाता है और साथ में उस गरीब की चाय ज़्यादा बिकती है । फिर शाम के समय भी सभी अपने-अपने काम से लौटते हैं तो चाय के साथ गाँव की समस्याओं पर चर्चा भी हो जाती है ।"
"अच्छा ! तो आप चायवाली की सहायता के लिए चाय पीते हैं !"अब मूल उद्देश्य मेरी समझ में आ चुका था ।
"बिल्कुल सही समझा तूने ! तो अब चलूँ चाय पीने ।" दादाजी उठकर जाने लगे ।
"दादाजी ! जब बात सहायता की है तब तो बिस्किट खरीद कर मैं भी उसकी सहायता करुँगी । तो फिर चलिए दादाजी, चाय पीने !"

आज सालों बाद गाँव की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है । चाय वाली की उस दुकान के आस- पास पूरा बाजार सज गया है पर वह चाय की दुकान अभी भी वहीं है । वही कोयले के चूल्हे पर खौलती चाय, काँच के जार में से झाँकते बिस्किट और वही चायवाली । अभी भी जब मैं उसकी दुकान पर जाती हूँ तो उसकी बूढ़ी नजरें मेरे चेहरे में मेरा बचपन ढूंढ़ती हैं और पहचानते ही उसके काँपते हाथ काँच के जार को खोलकर बिस्किट निकालने लगते हैं और मैं कहती हूँ-
"आज बिस्किट के साथ चाय भी पीऊँगी।"
और हम सभी भाई-बहन, जो दादाजी का पूरा कुनबा हैं, दुकान पर बैठ कर चाय पीते हैं ।
हाँ ! गाँव वालों को हमारा ये लड़कपन थोड़ा अजीब लगता है, पर हमारे लिए तो ये तीर्थ का अनुभव है और चाय वाली की चाय के रूप में प्रसाद पाकर हमलोग तृप्त हो जाते हैं ।

"चाय वाली"

मेरे गाँव में सड़क के किनारे एक छोटी-सी चाय की दुकान थी । उस दुकान को एक महिला चलाती थी । वह इस गाँव की नहीं थी इसलिए उसका इस गाँव में उस छोटी-सी झोपड़ी के अलावा और कोई ठिकाना न था । वह अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण इसी छोटी-सी दुकान से करती थी । गाँव के सभी बच्चे, बूढ़े और जवान उसकी दुकान के ग्राहक थे । गाँव में कोई और चाय की दुकान भी तो नहीं थी ।

मैं जब अपने बचपन के दिनों को याद करती हूँ तो उन यादों में उसकी चाय की सोंधी खुशबू भी शामिल होती है जो उस चायवाली के कोयले के चूल्हे पर उबलती रहती थी । जब मैं अपने दादाजी के साथ उसकी दुकान पर जाती तो काँच के जार में रखे पंजों के आकार के बड़े-बड़े बिस्किट मुझे आकर्षित करते थे । दादाजी तो चाय पीने बैठ जाते और मैं अपने सभी भाई-बहनों के लिए गिनकर बिस्किट लेती और भाग आती ।

हालाँकि गाँव के अधिकतर लोग चाय नहीं पीते थे लेकिन मेरे दादाजी उसके नियमित ग्राहक थे । एक दिन मैंने दादाजी से पूछ ही लिया- "दादाजी ! अपने घर में तो रोज़ चाय बनती है, तो फिर आप चाय वाली की दुकान पर चाय पीने क्यों जाते हैं ?"
पहले तो दादाजी ने मुझे बहलाते हुए कह दिया- " तुम्हारे लिए बिस्किट जो लाना होता है ।"
लेकिन उनके इस जवाब से मैं कहाँ संतुष्ट होनेवाली थी। फिर उन्होंने मुझे समझाया कि उसकी दुकान पर चाय पीने के कई उद्देश्य हैं ।

दादाजी ने कहा- " सुबह जब मैं टहलने के बाद चाय पीने जाता हूँ तो मेरे साथ और भी कई लोग होते हैं और सभी साथ में चाय भी पीते हैं । इससे मेरा सबसे मिलना-जुलना भी हो जाता है और साथ में उस गरीब की चाय ज़्यादा बिकती है । फिर शाम के समय भी सभी अपने-अपने काम से लौटते हैं तो चाय के साथ गाँव की समस्याओं पर चर्चा भी हो जाती है ।"
"अच्छा ! तो आप चायवाली की सहायता के लिए चाय पीते हैं !"अब मूल उद्देश्य मेरी समझ में आ चुका था ।
"बिल्कुल सही समझा तूने ! तो अब चलूँ चाय पीने ।" दादाजी उठकर जाने लगे ।
"दादाजी ! जब बात सहायता की है तब तो बिस्किट खरीद कर मैं भी उसकी सहायता करुँगी । तो फिर चलिए दादाजी, चाय पीने !"

आज सालों बाद गाँव की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है । चाय वाली की उस दुकान के आस- पास पूरा बाजार सज गया है पर वह चाय की दुकान अभी भी वहीं है । वही कोयले के चूल्हे पर खौलती चाय, काँच के जार में से झाँकते बिस्किट और वही चायवाली । अभी भी जब मैं उसकी दुकान पर जाती हूँ तो उसकी बूढ़ी नजरें मेरे चेहरे में मेरा बचपन ढूंढ़ती हैं और पहचानते ही उसके काँपते हाथ काँच के जार को खोलकर बिस्किट निकालने लगते हैं और मैं कहती हूँ-
"आज बिस्किट के साथ चाय भी पीऊँगी।"
और हम सभी भाई-बहन, जो दादाजी का पूरा कुनबा हैं, दुकान पर बैठ कर चाय पीते हैं ।
हाँ ! गाँव वालों को हमारा ये लड़कपन थोड़ा अजीब लगता है, पर हमारे लिए तो ये तीर्थ का अनुभव है और चाय वाली की चाय के रूप में प्रसाद पाकर हमलोग तृप्त हो जाते हैं ।


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