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श्रीमद आद्य शंकराचार्य परम्परा के दिव्य संदेश 🚩 | United States America (US)
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*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ६*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

अब कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्डकी सम्मिलित दृष्टिसे अर्थात् अत्यन्त उपयोगी आध्यात्मिक दृष्टिसे भी विचार करना चाहिये कि श्रीरामायणका बताया हुआ आध्यात्मिक तत्व कौन-सा है ? परम लक्ष्य क्या है ? और उसके साधन क्या क्या हैं? इस विषयपर भगवान् जगद्गुरु श्रीआदिशंकराचार्य महाराजजीने अपने 'आत्मबोध' नामक छोटे परन्तु अति सुन्दर वेदान्त-ग्रन्थमें इस एक ही लोकसे दिग्दर्शनमात्र करा दिया है। यथा-

तीर्त्वा मोहार्णवं हत्वा राग-द्वेषादि-राक्षसान्।
योगी शान्ति-समायुक्तः आत्मारामो विराजते॥

श्रीमद्भगवद्गीता -
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

इन लक्षणों के अनुसार जो आत्माराम बना हो, वही आत्मरामरूपी श्रीराम अज्ञानरूपी समुद्रसे पार होकर कामक्रोधादिरूपी राक्षसोंका वध कर, शान्तिरूपी सीताजीके साथ विराजता है। इसके तात्पर्यका निम्नलिखित विवरण है-

सीतोपनिषद् में बतलाया गया है कि श्रीरामचन्द्रजीको धर्मपत्नीरूपी श्रीसीताजी सच्चिदानन्दकन्द परमात्मस्वरूपी भगवानकी चिद्रूपिणी महाशक्ति हैं। वह महाशक्ति आनन्दस्वरूपी भगवानके साथ रहनेवाली शान्तिस्वरूपिणी महासम्पत्ति होती है। इस शान्तिस्वरूपिणी सीताजीको यदि कामक्रोधादिरूपी राक्षसोंका अधिपतिरूपी अहंकार स्वरूपी रावण अपनाना चाहे और उठाकर ले भी जाय, तो भी शान्तिस्वरूपिणी श्रीसीताजीका तो आत्मारामरूपी श्रीरामजीके ही साथ रहना सम्भव है, अन्य किसीके साथ कदापि नहीं । अतः काम-क्रोधादि राक्षसोंके राजा अहंकाररूपी रावणके साथ मिलकर उसकी होकर रहना शान्तिरूपिणी सीताजीके लिये सर्वथा अशक्य और असम्भव है। इसीलिये शान्तिरूपिणी सीताजी रावणका घोर तिरस्कार ही किया करती हैं क्योंकि वह तो- 'रावणो लोकरावण: ' है, अर्थात् सारी दुनियाको लगातार दुःख. पर दुःख देता हुआ, उसे रुलाते ही रखनेवाला अहंकाररूपी
राक्षसेश्वर है जिसके साथ शान्ति कदापि ठहर नहीं सकती ।

अतएव श्रीमद्भागवत दशमस्कन्धके रासपञ्चाध्यायी में ऐसा एक प्रसंग आता है कि अपनेको भूलकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के साथ नाचती, खेलती और गाती हुई आनन्दमें निमग्न हुई श्रीकृष्ण के दिव्य दर्शन करनेवाली गोपियोंके मनमें जब अहंकार था गया, तब भगवान् एकदम अन्तर्धान हो गये। क्योंकि अहंकार और परमात्म-दर्शन एक साथ कभी नहीं हो सकते, परन्तु जब भगवान् के गुम हो जाने पर गोपियाँ बढ़े दुःखमें पड़कर उनकी खोजमें लगती हैं और १- तन्मनस्कास्तदात्मिका: उन्हींके सतत ध्यानसे पुनः अपनेको सर्वथा भूलकर तद्रूप बन जाती हैं, तब -

तासामाबिरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।

-भगवान् हँसते-हँसते फिर प्रत्यक्ष हो जाते हैं, क्योंकि अहंकार के छूट जानेपर परमात्माका दर्शन निर्विघ्नतासे हो सकता है ! इसीलिये श्रीमद्भागवतके दशमस्कन्धमें यह बात भी हुई कि परमात्म-रूपी भगवान् अवतीर्ण होनेके बाद अहंकार रूपी कंससे कभी मिलते ही नहीं और जब मिलते हैं तब उसे मार डालने के लिये ही मिलते हैं। अतएव शान्तिरूपिणी सीताजी अहंकाररूपी रावणले मिल ही नहीं सकती !

अब यह देखना है कि शान्तिरूपिणी सीताजी आत्मारामरूपी श्रीराम के साथ किसप्रकारसे मिलती हैं ? पहले तो श्रीहनुमानजीके द्वारा सीताजीका पता लगाया जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह हनुमान् कौन-से तत्व हैं ? हनुमानजी जिज्ञासा या विचाररूपी आध्यात्मिक तत्व हैं, विचार के द्वारा आत्मारामको यह पता लग सकता है। कि शान्ति कहाँ रहती है ? हनुमानजी (विचार) से ही पता लगता है कि सीताजी (शान्ति) को लंका में ( अर्थात् लीयते यस्मिन्कर्मणि तद्यथा भवति तथा लं, कः आनन्दः, आ वृत्तिः, अर्थात् नश्वर आनन्दकी वृत्तिमें) रावणने (अहंकारने) रख छोड़ा है। वहाँ (लंकामें) रक्खे जाने पर भी सीताजी ( शान्ति) किसी विपरीत स्थान में नहीं रक्खी जाती, वह केवल 'अशोक' वनमें (अर्थात् दुःखलेशरहित और सन्तत धाराप्रवाहरूपी स्वरूपभूत आनन्दमें ही) स्थित रहती है,
इसका कारण यह है कि जन्य अर्थात् विकाररूपी ('यज्जन्यं तदनित्यम्', इस न्यायसे) नश्वर आनन्दमें यथार्थं शान्ति कभी नहीं रह सकती, क्योंकि उसका तो वास्तविक स्थान अशोक (आनन्द) का वन ही है।

-
क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
श्रीवैदिकब्राह्मणः🚩गुजरात
परमधर्मसंसद१००८

https://www.instagram.com/shrivaidikbrahmanah

*श्रीरामायण-तत्त्व-रहस्य भाग ६*
गोवर्धनपीठाधीश्वर पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामीजी श्री १०८ श्रीभारती कृष्णतीर्थजी महाराज

गतांक से -

अब कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्डकी सम्मिलित दृष्टिसे अर्थात् अत्यन्त उपयोगी आध्यात्मिक दृष्टिसे भी विचार करना चाहिये कि श्रीरामायणका बताया हुआ आध्यात्मिक तत्व कौन-सा है ? परम लक्ष्य क्या है ? और उसके साधन क्या क्या हैं? इस विषयपर भगवान् जगद्गुरु श्रीआदिशंकराचार्य महाराजजीने अपने 'आत्मबोध' नामक छोटे परन्तु अति सुन्दर वेदान्त-ग्रन्थमें इस एक ही लोकसे दिग्दर्शनमात्र करा दिया है। यथा-

तीर्त्वा मोहार्णवं हत्वा राग-द्वेषादि-राक्षसान्।
योगी शान्ति-समायुक्तः आत्मारामो विराजते॥

श्रीमद्भगवद्गीता -
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

इन लक्षणों के अनुसार जो आत्माराम बना हो, वही आत्मरामरूपी श्रीराम अज्ञानरूपी समुद्रसे पार होकर कामक्रोधादिरूपी राक्षसोंका वध कर, शान्तिरूपी सीताजीके साथ विराजता है। इसके तात्पर्यका निम्नलिखित विवरण है-

सीतोपनिषद् में बतलाया गया है कि श्रीरामचन्द्रजीको धर्मपत्नीरूपी श्रीसीताजी सच्चिदानन्दकन्द परमात्मस्वरूपी भगवानकी चिद्रूपिणी महाशक्ति हैं। वह महाशक्ति आनन्दस्वरूपी भगवानके साथ रहनेवाली शान्तिस्वरूपिणी महासम्पत्ति होती है। इस शान्तिस्वरूपिणी सीताजीको यदि कामक्रोधादिरूपी राक्षसोंका अधिपतिरूपी अहंकार स्वरूपी रावण अपनाना चाहे और उठाकर ले भी जाय, तो भी शान्तिस्वरूपिणी श्रीसीताजीका तो आत्मारामरूपी श्रीरामजीके ही साथ रहना सम्भव है, अन्य किसीके साथ कदापि नहीं । अतः काम-क्रोधादि राक्षसोंके राजा अहंकाररूपी रावणके साथ मिलकर उसकी होकर रहना शान्तिरूपिणी सीताजीके लिये सर्वथा अशक्य और असम्भव है। इसीलिये शान्तिरूपिणी सीताजी रावणका घोर तिरस्कार ही किया करती हैं क्योंकि वह तो- 'रावणो लोकरावण: ' है, अर्थात् सारी दुनियाको लगातार दुःख. पर दुःख देता हुआ, उसे रुलाते ही रखनेवाला अहंकाररूपी
राक्षसेश्वर है जिसके साथ शान्ति कदापि ठहर नहीं सकती ।

अतएव श्रीमद्भागवत दशमस्कन्धके रासपञ्चाध्यायी में ऐसा एक प्रसंग आता है कि अपनेको भूलकर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी के साथ नाचती, खेलती और गाती हुई आनन्दमें निमग्न हुई श्रीकृष्ण के दिव्य दर्शन करनेवाली गोपियोंके मनमें जब अहंकार था गया, तब भगवान् एकदम अन्तर्धान हो गये। क्योंकि अहंकार और परमात्म-दर्शन एक साथ कभी नहीं हो सकते, परन्तु जब भगवान् के गुम हो जाने पर गोपियाँ बढ़े दुःखमें पड़कर उनकी खोजमें लगती हैं और १- तन्मनस्कास्तदात्मिका: उन्हींके सतत ध्यानसे पुनः अपनेको सर्वथा भूलकर तद्रूप बन जाती हैं, तब -

तासामाबिरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।

-भगवान् हँसते-हँसते फिर प्रत्यक्ष हो जाते हैं, क्योंकि अहंकार के छूट जानेपर परमात्माका दर्शन निर्विघ्नतासे हो सकता है ! इसीलिये श्रीमद्भागवतके दशमस्कन्धमें यह बात भी हुई कि परमात्म-रूपी भगवान् अवतीर्ण होनेके बाद अहंकार रूपी कंससे कभी मिलते ही नहीं और जब मिलते हैं तब उसे मार डालने के लिये ही मिलते हैं। अतएव शान्तिरूपिणी सीताजी अहंकाररूपी रावणले मिल ही नहीं सकती !

अब यह देखना है कि शान्तिरूपिणी सीताजी आत्मारामरूपी श्रीराम के साथ किसप्रकारसे मिलती हैं ? पहले तो श्रीहनुमानजीके द्वारा सीताजीका पता लगाया जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह हनुमान् कौन-से तत्व हैं ? हनुमानजी जिज्ञासा या विचाररूपी आध्यात्मिक तत्व हैं, विचार के द्वारा आत्मारामको यह पता लग सकता है। कि शान्ति कहाँ रहती है ? हनुमानजी (विचार) से ही पता लगता है कि सीताजी (शान्ति) को लंका में ( अर्थात् लीयते यस्मिन्कर्मणि तद्यथा भवति तथा लं, कः आनन्दः, आ वृत्तिः, अर्थात् नश्वर आनन्दकी वृत्तिमें) रावणने (अहंकारने) रख छोड़ा है। वहाँ (लंकामें) रक्खे जाने पर भी सीताजी ( शान्ति) किसी विपरीत स्थान में नहीं रक्खी जाती, वह केवल 'अशोक' वनमें (अर्थात् दुःखलेशरहित और सन्तत धाराप्रवाहरूपी स्वरूपभूत आनन्दमें ही) स्थित रहती है,
इसका कारण यह है कि जन्य अर्थात् विकाररूपी ('यज्जन्यं तदनित्यम्', इस न्यायसे) नश्वर आनन्दमें यथार्थं शान्ति कभी नहीं रह सकती, क्योंकि उसका तो वास्तविक स्थान अशोक (आनन्द) का वन ही है।

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क्रमशः
साभार : कल्याण
संकलन : पं. हीरेनभाई त्रिवेदी,क्षेत्रज्ञ
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परमधर्मसंसद१००८

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